
जो ढूँढा तुमको...
तो पाया खुद को...
जो जाना तुम्हे...
तो जाना खुदको...!
जब देखा तुमको...
तब देखा, पहली बार...
जो अब देखता हूँ, बिन देखे...
तो दूर तक, बस एक भीड़ नज़र आती है...
और नज़र आते हैं, वो दोनों...
अलग से, फिर भी भीड़ में...!
यह जो तुम्हरा मेरा लगता है...
अब यह बढ़ता नहीं...
कहीं जाता भी नहीं...
बस भीतर-ही-भीतर...
घर करता जाता है....!
एक मधुर धुन सी लगती हो...
फिर जो कोई एक बात कहती हो...
तो साज़ भी अगर हो...
तो जैसे गुनाह हो...!
जाना था, और माना भी था...
की, समय कभी नहीं रुकता...
पर अब जाना....
कभी-कभी वोह भी है रुकता...
कभी-कभी वोह भी है झुकता ...!
लगता है बंधा-बंधा सा...
और कभी संकरा...
और कभी कच्चा ...
जब भी इन शब्दों के लपेट में...
तुमको कुछ भी कहता हूँ...
पर तुमसे कहूं, लगे की जैसे,
खुद से ही कहता हूँ,
इसिलीये बस कह देता हूँ...!
इसी दिए के बाती और लौ...
तुमसे ही रौशन...
तुमसे ही कारन...!
jo dhoondha tumko to paya khudko....... :)
ReplyDeleteI must say you have great imagination power...