Friday, June 10, 2011

तितलियाँ



















हरे गलीचों की गोद में,
हरी छन्नी जैसे आकाश तले,
उन सुनहरी किरणों की बारिश में,
कुछ नवजात ख्वाब पले.

ख्यालों की आंच में,
सेके वोह कुछ ख्वाब,
सिन्दूरी अंगारों सी,
चाहत की तपिश में,
खूब पके वो ख्वाब.

इस नरम-गरम व्यवस्था से,
फिर उड़ चले वो ख्वाब,
बन के तितली, बन के बिजली,
बन बैठे फ़िज़ाओं के वो नवाब.

रन-बिरंगी तितलियों जैसी,
टेढ़ी-मेढ़ी उनकी उड़ान,
हवाओं में तैरती जैसे,
मौसम की मुस्कान,
हम न पहुंचे जिस किसी,
पहुंचे वो हर उस मक़ाम.

तितली बना खुद को उड़ाते,
जो न कर पाते,
वोह सब हम उनसे करवाते,
विडम्बना से पूर्ण,
एक अनोखी दास्तान...!

2 comments:

  1. Bahut socha..kuch kahoon...par kuch soojha hi nahi..kuch cheezein anboojh hain sambhavatah..

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  2. I am amazed by your choice of words to express your feelings so beautifully .... if i may suggest you can try getting your these published.All the best!

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