Sunday, May 29, 2011
It was You.
एक अनचली, अनसुनी,
अनजानी, राह का पथिक था मै.
न कोई निशाँ, न कोई मील-का-पत्थर...
साथ न कोई लाव-लश्कर...
उस राह के अपने थे मौसम,
और थे अपने ही दिन-रात...!
न थी कोई मंजिल,
न था कोई कारन,
और न ही कोई सवाल,
थी तो बस एक दिशा,
या फिर शायद, उसका भी भरम...!
पाया जो एक पत्थर,
बस यूँ ही माथे लगा लिया,
लगा की किसी ने फिर जिला दिया,
कुछ था उसमे ऐसा,
की जो भी ढूँढा उसमे,
वो सब पाया,
जाने कैसी थी माया...!
किसी ने कहा, है कीमती बड़ा,
रखना संभाल सदा,
बहुत सहेज कर रखा,
खुद के सुकून का कारन बनाया,
और यहीं गलती कर बैठा...!
जितना ज्यादा सहेजा,
उतना खुद से दूर किया,
इतना की लगभग भूल ही गया...!
एक रोज़ पुछा किसी ने,
बहुत सुकून दीखता है तुम-में,
सवाल का मर्म समझा हमने,
दिखाया उसको बड़े मान से,
देख जिसे, वो मुस्कराया...!
कारन कुछ बहुत समझ न आया...!
फिर एक रोज़, जब बदला मौसम का साया,
ढूँढा बहुत उसको, पर कहीं न पाया,
सबसे पुछा, पर किसी ने न बताया,
फिर बोला, वही एक...
है वो अब मेरे पास...
न खो, तुम अपनी आस...
जो पुछा, क्यूँ लिया तुमने,
बोला, खो तो बहुत पहले दिया था तुमने,
इतना ही प्यारा था तो इतना क्यूँ सहेजा...?
की भुला ही दिया............................!
मोह करने का यह तरीका,
कुछ ठीक नहीं...मित्र,
जो मर्म समझा उस दिन हमने,
उतारा वोह चश्मा उस दिन हमने,
सो आज भी उसे हाथ में भरे फिरते हैं,
उन्ही अनजानी, अनसुनी राहों पर,
अब जो मंजिल भी है और दिशा भी...!
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बहुत खूबसूरत. और बहुत गहरी. शायद कोई एक सिरा हम पकड़ पायें हैं, या शायद हम वो ही देख रहे हैं, जो सोचते हैं की है यहाँ.
ReplyDeleteवैसे तस्वीर बहुत प्यारी है. किसने खिची? :D
bhula diya ?........ bhulana itna aasaan kahan hota hai....yaadein hamesha saath hoti hai......
ReplyDeletebeautifully written harshit... :)
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