Sunday, April 24, 2011
जो गए तुम..!
कमीज़ की बांह से,
निकली दो सहमी हथेलियाँ,
बंद अंगूठा, सिमटी उँगलियाँ,
जो बात जुबान से न कही,
वो न कह सकी अँखियाँ,
और न ही वोह उँगलियाँ...!
न कोई बात,
न भरी आँख,
न कोई इशारा,
कुछ भी हमारा,
काफ़ी न रहा...
और दूर होता गया किनारा.
जिस नदी के सहारे,
पीछे छोड़े कितने किनारे,
नाम हमारे भी था एक किनारा,
बस थोडा ज्यादा बिखरा,
थोडा ज्यादा सूखा,
और थोडा ज्यादा सूना...!
और सजा भी क्या थी,
उसी किनारे रह के,
उसी नदी को बहते देखना,
जिस पर कभी हम थे,
जो कभी हमारी थी...!
हर पल, दूर जाते देखना,
हर पल, बस यही देखना,
हर पल, बस यही जीना,
हर अगले पल दूर जाती,
हर अगला पल, पिछले जैसा,
हम वहीँ के वहीँ ..!
उन सिमटी हथेलियों को जोड़,
बस यही कर सकते थे,
की खुद को गले लगा लेते,
पर यह भी उसका ही हक था,
सो वोह भी न कर सके...
इतनी वफ़ा तो निभानी थी...!
बस इतनी सी कहानी थी...!
Sunday, April 10, 2011
निशब्द..!
तुम संग चलूँ,
पर कुछ न कहूँ,
चलूँ कभी रेत पर,
चलूँ कभी पानी पर,
पर कुछ न कहूँ...!
उकेरें मिल कर,
किनारा, कभी नदी का..
किनारा कभी समंदर का..
मिल कर उकेरें,
तना, किसी पेड़ का..
तन, एक दुसरे का..
लिखे नाम कभी,
कभी रेत पर..
कभी पानी पर..
कभी हवाओं पर..
लिखे हर वोह बात,
जो कभी कही नहीं,
लिखे और पढ़े, मिल कर..
फिर हँसे, खुल कर...!
ले कर चलूँ, तुझे मैं साथ,
पर कुछ न कहूँ.
कुछ न कहूँ तब भी,
जब गुजरूँ उन छोटी, सजी दुकानों से,
रंगों से जड़ी हर दूकान,
सजाती तुझ पर जो मुस्कान,
चलूँ जब उन पग-डंडियों पर,
कुछ न कहूँ तब भी,
जो पूछे कुछ तू इशारों से,
तो बोलूं मैं निगाहों से,
कुछ कहूँ उन नज़रों से..!
चलूँ जो तेरे साथ,
बिन कुछ कहे,
तो तुम समझ जाओगे न....?
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