मन , ऐ मेरे मन...
थोडा ठहर , ज़रा सा थम...
कैसे कैसे छले मोहे, ओ निर्मम...
यूँ तो कहने को है यह मेरा जीवन...
पर जाने क्यूँ और कैसे जीता इसको मन...!
तुझ से ही बनती क्यूँ सोच मेरी....?
क्यूँ तुझ पर आश्रित सब सच मेरे...?
तू ही करे है सब झूठ किनारे...
कैसे रखे है मुझको भटकाए.....!
है बड़ा ही बेबाक और बेशरम...
न कोई दुविधा , न कोई भरम...
न कोई सीमा..न कोई रेखा....
सब कुछ करता यूँ अनदेखा...
जब लगायी कोई रोक-टोक...
तनिक भी न हुआ गति अवरोध...
छलआंगे मार जो बनता हिरन...
फिर न चलता इस पर कोई जतन...!
तनिक ठहर, ज़रा सा थम...
मन, ऐ मेरे मन...
अब समय है, तू मेरी सुन...
अब जो ऐसा हो की :
तू है - कह ,
और मैं हूं - सुन,
और मै ही - चिंतन,
यूँ तो कभी न रखा कोई बही-खता...
फिर ऐसा हो की कुछ समझ नहीं आता...
अब किया जो दर्ज इस नए खाते में...
कुछ बदल छटते और हुई रौशनी इस अहाते में...
अब जो तुझको जीता हूं...
तो लगता है वाकई जीता हूं...
यूँ न समझेगा तू यूँ ही...
क्यूंकि तेरा मन तो होगा नहीं...!