Sunday, May 9, 2010
खिल उठी लौ ....!!
जिधर जाये नज़र ...
उधर एक राह नज़र आती है ....
कैसे जानू मेरी कौन सी है ....
नज़र भी दूर तक नहीं जाती ...
जाने क्या चाहिए मुझे...
शायद एक भरोसे की दरकार है ...
उधर से बहती हवा ...
जो मेरी लौ के साथ अठखेलिया कर रही ...
उसे उँगलियों में लपेट कर साथ रखता हूँ ...
शायद कभी हवाओं के पट पर कुछ लिखा होगा ...
आज फिर वही पढने की कोशिश करता हूँ...
सोचता हूँ... जाने ऐसा क्या लिखा था...
जो आज समझ ही नहीं आता...
इस अंतर्द्वंद के मायने शायद समझ ही नहीं पाया ....
इस विचिलित मनं को शांत करता कैसे...
तभी नज़र पड़ी, हवा से इठलाती, लहराती लौ पर...
हाथों में लेकर, जब उँगलियों से उसे टटोला ...
तो समझ आया ...
इस लौ रुपी व्यथा को खंगालने से कुछ न मिलेगा ..
सार इसी में है की...
जैसे लौ का धर्म है राह दिखाना....
वैसे ही व्यथा की नियति है राह पे आगे बढ़ाना...!
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